
बुधवार को उच्चतम न्यायालय (supreme court) में मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पमिदिघनतम श्री नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने सीआरएलए नंबर 1255/1999 नागरिक स्वतंत्रता के लिये पीपुल्स यूनियन (PEOPLES UNION FOR CIVIL LIBERTIE) बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले की सुनवाई करते हुये केंद्रीय गृह मंत्रालय को तीन महीने की अवधि के भीतर पुलिस कर्मियों द्वारा मीडिया ब्रीफिंग पर एक व्यापक मैनुअल तैयार करने का निर्देश दिया है, साथ ही इस मामले की अगली सुनवाई जनवरी 2024 के दूसरे सप्ताह की निर्धारित की है।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशकों (डीजीपी) को मैनुअल के लिये अपने सुझाव प्रस्तुत करने का भी निर्देश दिये है, इसके अलावा पीठ ने निर्देश दिया कि इस मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सुझाव पर विचार किया जाये।
बुधवार को मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने सुनवाई दो महत्वपूर्ण मुद्दों के संबंध में हुई, पहली मुठभेड़ होने की स्थिति में पुलिस द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया और दूसरी आपराधिक जांच के दौरान मीडिया ब्रीफिंग के दौरान पुलिस को प्रोटोकॉल का पालन करने के संबंध में।
अदालत ने आदेश में कहा, “किसी आरोपी को फंसाने वाली मीडिया रिपोर्ट अनुचित है। पक्षपातपूर्ण रिपोर्टिंग से जनता में यह संदेह भी पैदा होता है कि उस व्यक्ति ने अपराध किया है। मीडिया रिपोर्ट पीड़ितों की निजता का भी उल्लंघन कर सकती है।” अपने आदेश में, सुप्रीम कोर्ट ने अद्यतन दिशानिर्देशों की आवश्यकता पर प्रकाश डाला, क्योंकि मौजूदा दिशा निर्देश एक दशक पहले बनाए गए थे, और अपराध की मीडिया रिपोर्टिंग तब से काफी विकसित हुई है, जिसमें प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
अदालत ने माना कि मीडिया को बताई गई जानकारी की प्रकृति पीड़ितों और आरोपी व्यक्तियों की उम्र और लिंग जैसे कारकों को ध्यान में रखते हुए, प्रत्येक मामले की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए। अदालत ने आगे रेखांकित किया कि पुलिस के खुलासे का परिणाम “मीडिया-ट्रायल” नहीं होना चाहिए। कोर्ट ने कहा, “यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि खुलासे के परिणामस्वरूप मीडिया ट्रायल न हो ताकि आरोपी के अपराध का पूर्व-निर्धारण हो सके।”
सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को व्यापक मैनुअल तैयार करने की समयावधि तीन महीने की दी है। एक महीने के भीतर सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को अपने सुझाव गृह मंत्रालय को बताने होंगे और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सिफारिशों पर भी विचार किया जाएगा। पीठ ने कहा कि गृह मंत्रालय से अपेक्षा की जाती है कि वह तीन महीने के भीतर इस कार्य को समाप्त कर लेगा और दिशानिर्देशों की एक प्रति एमिकस क्यूरी वारिस्थ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की अधिवक्ता सुश्री शोभा गुप्ता को प्रदान की जाएगी।
इससे पहले कोर्ट ने वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकर नारायणन को सहायता के लिए न्याय मित्र नियुक्त किया था। शंकरनारायणन ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को एक प्रश्नावली वितरित की थी, जिनमें से कुछ से प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं। इसके अलावा, मामले में याचिकाकर्ताओं में से एक, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) द्वारा टिप्पणियां प्रस्तुत की गई। वरिष्ठ अधिवक्ता ने सिफारिश की, “हालांकि मीडिया को रिपोर्टिंग से रोका नहीं जा सकता है, लेकिन सूचना के स्रोत, जो अक्सर सरकारी संस्थाएं हैं, को विनियमित किया जा सकता है।“ इस दृष्टिकोण का उद्देश्य घटनाओं के कई संस्करणों को मीडिया में प्रस्तुत होने से रोकना है, जैसा कि पिछले मामलों में हुआ है। उन्होंने कहा- “हम मीडिया को रिपोर्टिंग करने से नहीं रोक सकते। लेकिन स्रोतों को रोका जा सकता है। क्योंकि स्रोत राज्य है।
इसे ध्यान में रखते हुए, एमिकस ने मैनुअल तैयार करने के उद्देश्य से विचार करने के लिए दिशा निर्देश प्रस्तुत किए। उन्होंने कहा कि दिशानिर्देश लॉस एंजिल्स पुलिस डिपार्टमेंट (एलएपीडी) और न्यूयॉर्क पुलिस डिपार्टमेंट (एनवाईपीडी) की मीडिया रिलेशंस हैंडबुक के साथ-साथ यूके के मुख्य पुलिस अधिकारियों के यूनियन को जारी कम्यूनिकेशन एडवाइजरी, और सीबीआई नियमावली से लिए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेश में स्वतंत्र भाषण और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार, निष्पक्ष जांच के आरोपी के अधिकार और पीड़ितों की गोपनीयता के बीच नाजुक संतुलन पर जोर दिया गया।