
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ जिसमें न्यायाधीश संजय किशन कौल, न्यायाधीश एस रवींद्र भट्ट, न्यायाधीश हिमा कोहली और न्यायाधीश पीएस नरसिम्हा शामिल है, की पीठ विभिन्न समान जेंडर वाले जोड़ों, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और एलजीबीटीक्यूआईए एक्टिविस्ट द्वारा दायर की गई बीस याचिकाओं वाली रिट याचिका (सिविल) नंबर 1011/2022 सुप्रियो बनाम भारत संघ के मामले में जल्द फैसला सुना सकती है। इस मामले की सुनवाई 18 अप्रैल शुरू हुई थी, सुनवाई पूरी करने के बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने 11 मई 2023 को फैसला सुरक्षित रख लिया था, मगर 20-अक्टूबर-2023 न्यायाधीश एस रवीन्द्र भट्ट सेवानिवृत होने वाली है, जिससे उम्मीद लगाई जा रही है, अक्टूबर माह में ही समान सेक्स जेंडर विवाह समानता पर निर्णय आ सकता है।
20 से अधिक दायर हुई थी याचिका
विशेष विवाह अधिनियम 1954, हिंदू विवाह अधिनियम 1955 और विदेशी विवाह अधिनियम 1969 के प्रावधानों को चुनौती देने के लिए 20 से अधिक याचिका दायर की गई है, जिन पर फैसला किया जायेगा, वर्तमान में कानून गैर-विषमलैंगिक विवाहों को मान्यता नहीं देते हैं। इस सुनवाई के दौरान, पीठ ने कहा था, “वह इस मुद्दे को केवल विशेष विवाह अधिनियम तक ही सीमित रखेगी और व्यक्तिगत कानूनों को नहीं छुयेगी।“ मामले में जो महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुआ, वह केंद्र सरकार द्वारा व्यक्त की गई इच्छा थी, जिसने इस आधार पर याचिकाओं का विरोध किया कि यह संसद के निर्णय लेने का मामला है, यह विचार करने के लिये कि क्या समान-सेक्स वाले जोड़ों को विवाह के रूप में कानूनी मान्यता के तहत कुछ अधिकार प्रदान किये जा सकते हैं।
याचिकाकर्ताओं की ओर से कई वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने रखा था पक्ष
पीठ ने इस बात पर भी विचार किया कि क्या मौजूदा कानूनों में हस्तक्षेप किये बिना समान-सेक्स वाले जोड़ों के लिए विवाह के अधिकार की घोषणा जारी की जा सकती है। जिसमें याचिकाकार्ताओं की ओर से पेश हुये वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी, वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी, वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचंद्रन वरिष्ठ अधिवक्ता केवी विश्वनाथन, वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ.मेनका गुरुस्वामी, अधिवक्ता जयना कोठारी, अधिवक्ता सौरभ किरपाल, अधिवक्ता आनंद ग्रोवर, अधिवक्ता गीता लूथरा, अधिवक्ता अरुंधति काटजू, अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर, अधिवक्ता करुणा नंदी, अधिवक्ता मनु श्रीनाथ आदि ने तर्क दिया था, कि विशेष विवाह अधिनियम में “पति” और “पत्नी” शब्द को जेंडर तटस्थ तरीके से “पति/पत्नी” या “व्यक्ति” के रूप में पढ़ा जाना चाहिये।
सॉलिसिटर जनरल ने केंद्र सरकार की ओर से की पैरवी
केंद्र सरकार की ओर से भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पेश हुये, जिन्होने यह कहकर इसका विरोध किया कि विशेष विवाह अधिनियम पूरी तरह से अलग उद्देश्य को ध्यान में रखकर बनाया गया और जब 1954 में इसे पारित किया गया तो विधायिका ने कभी भी समलैंगिक जोड़ों को इसके दायरे में लाने पर विचार नहीं किया था। केंद्र ने यह भी कहा कि इस तरह की व्याख्या विभिन्न अन्य कानूनों को बाधित करेगी, जो गोद लेने, भरण-पोषण, सरोगेसी, उत्तराधिकार, तलाक आदि से संबंधित हैं।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने गोद लेने की अनुमति देने पर की थी चिंता व्यक्त
वही राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने समान-सेक्स वाले जोड़ों को गोद लेने की अनुमति देने के बारे में चिंता व्यक्त करते हुए हस्तक्षेप किया। दूसरी ओर, दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने याचिकाओं का समर्थन किया और समलैंगिक जोड़ों को गोद लेने के अधिकार का समर्थन किया। । याचिकाओं के विरोध में मध्य प्रदेश राज्य की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने बहस की। वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और अरविंद दातार ने भी याचिकाओं का विरोध करते हुए दलीलें दीं।